कुंठा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। हालांकि यह बात सब जानते हैं परंतु यह भी सत्य है कि कुंठा किसी न किसी कारणवश सभी मन में पालते हैं

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कुंठा मनुष्य का सबसे

 

 

 

कुंठा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। हालांकि यह बात सब जानते हैं परंतु यह भी सत्य है कि कुंठा किसी न किसी कारणवश सभी मन में पालते हैं। जो नहीं पालते वे भी  कभी ना कभी इसका शिकार हो ही जाते हैं इसमें कोई दो राय नहीं है।

 दरअसल यह संसार किसी के मन मुताबिक नहीं चल सकता। धरती पर जितने लोग हैं उतने ही तरह की मानसिकता है। सब अपने-अपने तरह से सोचते हैं, जीना चाहते हैं, करना चाहते हैं। ऐसे में जब भी किसी के मन में असंतोष उत्पन्न होता है तो कुंठा का भी जन्म साथ में ही हो जाता है।
 यानी जहां भी असंतोष है वहां कुंठा का होना स्वभाविक है। अब रही  असंतोष की बात तो सबको पता है कि दुनिया किसी एक व्यक्ति के मर्जी के मुताबिक नहीं चल सकती और जब कोई इंसान दुनिया के किसी पार्ट को अपनी इच्छा अनुसार संचालित करना चाहता है तो  असंतोष का जन्म शीघ्र ही हो जाता है। फिर मन कुंठाग्रस्त हो जाता है और आप तो जानते ही हैं कि कुंठा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
 वैसे कुंठा की दवा किसी दुकान पर नहीं मिलती। इसकी दवा तो अपने भीतर ही होती है। यदि कुंठा से बचना है तो आपको आपका आत्मज्ञान ही बचा सकता है।
 यदि आप मुझसे पूछेंगे कि दुनिया का सबसे दुखी व्यक्ति कौन होता है तो मैं कुंठित व्यक्ति ही कहूंगा दरअसल वास्तव में कुंठा मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। चाहे कितने भी सुख के साधन उपलब्ध हो, चाहे कितने भी स्वस्थ क्यों ना हो? पर कुंठित व्यक्ति अंदर से बीमार और दुखी ही होता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह अपने सुख को भूलकर दूसरों के सुख से ईर्ष्या करने लगता है। फल स्वरुप असंतोष का जन्म होता है। फिर मन में कुंठा उत्पन्न होने लगती है।
 वैसे आजकल देखा जाए तो प्रत्येक आदमी किसी न किसी वजह से कुंठित जरूर है। कोई पड़ोसी की तरक्की से कुंठित है, कोई परिवार के सदस्य से ही कुंठित है, कोई ऑफिस में अपने सहकर्मी से कुंठित है, कोई जात धर्म के भेदभाव में कुंठित है, कोई अपने आप से ही कुंठित है।
 मनचाहा कार्य न कर पाने के कारण समाज का हर वर्ग कहीं ना कहीं किसी स्तर पर कुंठा से पीड़ित है। ऐसे में आदमी यह समझ नहीं पाता है कि वह अपने जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ कर रहा है और साथ-साथ अपने अनमोल सुख को गवा रहा है। दरअसल ईर्ष्या आदमी का वह शत्रु है जो अपने बाहुपाश से मुक्त होने ही नहीं देता।
 यह आवश्यक नहीं की आदमी का कुंठा सिर्फ दूसरों के प्रति ही हो। आदमी दूसरों के प्रति किसी न किसी कारण से कुंठा तो रखता ही है परंतु अपने निजी कारणों से भी कहीं ना कहीं कुंठाग्रस्त रहता है। जब भी कभी किसी कोशिश में कोई पराजय का सामना करना पड़ता है तो निराश हो जाता है तत्पश्चात अपने आप पर ही गुस्सा निकालता है। जो बाद में कुंठा का रूप ले लेता है।
 सच मानिए तो यह कुंठा आदमी को उसके राह से भटका देती है। कोई सोच ही नहीं पता कि उसके जीवन का मकसद क्या है और उसे क्या करना चाहिए कुंठा के कारण ? अतः मैं तो कहूंगा कि इस कुंठा से जितना दूर रहा जाए उतना ही सही है। परंतु इससे दूर रहने के लिए दूसरों से प्रेम करना सीखना होगा। उनका आदर करना सीखना होगा और सबसे बड़ी बात यह है कि कभी भी दूसरे की तरक्की से ना जलना है। हमेशा दूसरों की तरक्की का सम्मान करें और आपको ऐसा कभी भी लगे कि आपको भी उनके जैसा होना चाहिए तो आप मेहनत करें। क्योंकि परिश्रम ही वह रास्ता है जो आपको वहां तक पहुंचाएगा। कुंठा कभी नहीं पहुंचाएगी क्योंकि कुंठा ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।